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चुनाव में क्यों गायब रहते हैं महंगाई बेरोजगारी के सवाल?

NEWS DESK TOP NEWS HINDI by NEWS DESK TOP NEWS HINDI
November 15, 2024
in भारत
0
चुनाव में क्यों गायब रहते हैं महंगाई बेरोजगारी के सवाल?

नई दिल्ली: भारत में हर चुनाव के दौरान महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे चर्चा में रहते हैं, लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है कि जब चुनावी माहौल गर्माता है, तो ये मुद्दे क्यों गायब हो जाते हैं? महंगाई और बेरोजगारी देश के सबसे अहम आर्थिक और सामाजिक मुद्दे हैं, जिनसे हर भारतीय नागरिक प्रभावित होता है। बावजूद इसके, चुनावी भाषणों में इन मुद्दों पर बात करना क्यों कम हो जाता है? आइए, इस पर एक नजर डालते हैं।

महंगाई और बेरोजगारी के सवालों का चुनावी प्रचार में गायब होना:

भारत जैसे विकासशील देश में महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे हमेशा महत्वपूर्ण होते हैं। जनता के जीवन स्तर को प्रभावित करने वाले इन मुद्दों पर जब नेताओं का ध्यान नहीं जाता, तो यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों होता है। एक मुख्य कारण है चुनावों के दौरान नेताओं का रणनीतिक तरीके से इन मुद्दों को नज़रअंदाज़ करना।

1. राजनीति में ‘दृश्य और रणनीति‘: चुनावों में प्रचार की रणनीतियां बहुत सावधानी से तैयार की जाती हैं। महंगाई और बेरोजगारी ऐसे मुद्दे हैं, जो किसी भी सरकार के खिलाफ विरोध का कारण बन सकते हैं। यही कारण है कि राजनीतिक पार्टियां इन मुद्दों को टालने की कोशिश करती हैं। वे ऐसे मुद्दों पर बात करने से बचते हैं, जिनसे उनकी नकारात्मक छवि बन सकती है। जब यह मुद्दे उठाए जाते हैं, तो आमतौर पर सरकारों को अपनी नीतियों और योजनाओं का बचाव करना पड़ता है, जो कई बार विवादों का कारण बन सकता है।

2. चुनावी वादों का असर: चुनावों के दौरान नेताओं के भाषणों में विकास, सुरक्षा, और लोककल्याण जैसे बड़े वादे प्रमुख रहते हैं। वे महंगाई और बेरोजगारी की तुलना में ऐसी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो दिखने में सरल और तत्काल लाभ देने वाली लगती हैं। उदाहरण के लिए, किसानों के लिए कर्ज माफी या युवाओं के लिए रोजगार योजनाओं की घोषणा करना आसान होता है, जबकि महंगाई और बेरोजगारी पर प्रभावी और दीर्घकालिक समाधान ढूंढ़ना एक बड़ी चुनौती है।

3. मीडिया और प्रचार के उपकरण: चुनावों के दौरान मीडिया एक प्रमुख भूमिका निभाता है। राजनीतिक पार्टियां चुनावी प्रचार में सोशल मीडिया और अन्य प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करती हैं, जहां अक्सर मुद्दों को व्यक्तिगत या भावनात्मक दृष्टिकोण से पेश किया जाता है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर लोगों का ध्यान खींचना और उन्हें लंबे समय तक इस मुद्दे पर विचार करने के लिए प्रेरित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। मीडिया में अक्सर भावनात्मक मुद्दों, जैसे धर्म, सुरक्षा, और राष्ट्रीयता, पर अधिक जोर दिया जाता है, क्योंकि ये मुद्दे जनता को तुरंत प्रभावित करते हैं।

4. आर्थिक मुद्दों पर प्रभावी संवाद की कमी: महंगाई और बेरोजगारी जैसे जटिल आर्थिक मुद्दों पर स्पष्ट और प्रभावी संवाद करना नेताओं के लिए कठिन हो सकता है। ये मुद्दे व्यापक होते हैं और इसके समाधान के लिए दीर्घकालिक नीतियों की आवश्यकता होती है। चुनावी प्रचार में तात्कालिक परिणामों की अपेक्षाएँ होती हैं, जबकि इन मुद्दों का समाधान समय ले सकता है, और इसमें कई उतार-चढ़ाव आते हैं। इस वजह से नेताओं को इन मुद्दों पर बात करने से बचना आसान लगता है।

5. मतदाता के व्यवहार में बदलाव: आज के समय में भारतीय मतदाता का दृष्टिकोण भी बदल चुका है। पहले जहां बेरोजगारी और महंगाई सबसे बड़े मुद्दे होते थे, वहीं अब यह धारणा बन चुकी है कि विकास और बदलाव की बात करने वाले नेता ही सबसे अधिक आकर्षक होते हैं। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां अक्सर अपनी योजनाओं के सकारात्मक पक्ष को ही प्रमुख बनाती हैं, ताकि लोगों का ध्यान महंगाई और बेरोजगारी जैसे नकारात्मक मुद्दों से हट सके।

भ्रष्टाचार और चुनावी व्यवस्था की भूमिका: महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे अक्सर चुनावी भ्रष्टाचार और व्यवस्थागत खामियों से जुड़े होते हैं। कई बार यह मुद्दे चुनावी खर्चों और काले धन से जुड़ सकते हैं, जिससे इन मुद्दों पर चर्चा से बचने की प्रवृत्ति पैदा होती है। विपक्षी पार्टियां सत्ता पक्ष को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने की कोशिश करती हैं, लेकिन जब इन मुद्दों पर बात की जाती है तो वह समस्या और भी जटिल हो जाती है।

महंगाई और बेरोजगारी जैसे अहम मुद्दे चुनावी प्रचार के दौरान किनारे क्यों हो जाते हैं, इसके कई कारण हैं। राजनीतिक दल अपने चुनावी प्रचार के दौरान ऐसे मुद्दों से बचते हैं, जो उनके लिए राजनीतिक नुकसान का कारण बन सकते हैं। इन मुद्दों का समाधान दीर्घकालिक नीतियों और सही प्रशासनिक संरचना की मांग करता है। यही कारण है कि चुनावी भाषणों में इन सवालों का उल्लेख कम ही देखने को मिलता है। हालांकि, यह जरूरी है कि जब तक इन समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं निकलता, इन्हें चुनावी बहस से बाहर नहीं किया जाना चाहिए।

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