हरियाणा की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी विपक्षी वोटों को बांटकर सत्ता में आने का सपना देख रही है भाजपा ?

BJP Maharashtra

महाराष्ट्र में बीजेपी: शिंदे-अजीत एसेट कम, लायबिलिटी ज्यादा!

मुंबई: भाजपा की पहचान हिंदू राष्ट्रवाद की दक्षिणपंथी विचारधारा की जन्मस्थली महाराष्ट्र की भूमि रही है. जब से छत्रपति शिवाजी महाराज ने बाबरशाही (दिल्ली), कुतुबशाही (गोलकुंडा) और आदिलशाही (बीजापुर) के तीन शक्तिशाली विधर्मी राज्यों के खिलाफ जंग लड़कर हिंदूपतपादशाही की स्थापना की, तब से आज तक कई कारकों ने पूरे भारत में हिंदू स्वराज के सपने को जीवित रखा है. शिवाजी महाराज के बाद पेशवाओं के दिगविजय ने इस सपने को साकार किया लेकिन उन्हें पानीपत की तीसरी लड़ाई में करारी हार का सामना करना पड़ा. फिर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने उस टूटे हुए सपने को पुनर्जीवित कर दिया. तब हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ध्वजवाहक बने लोकमान्य तिलक की आक्रामकता से इस सपने का पुनः शंखनाद हुआ और आज जनसंघ और भाजपा इस विचार को राजनीतिक मोर्चे पर आगे बढ़ा रहे हैं.

उसी महाराष्ट्र में जब विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो कौन सहयोगी है, कौन नहीं है, जो दोस्त था वो अब दुश्मन है और दोस्त कब तक दोस्त रहेगा, ये सवाल भाजपा के लिए गंभीर उलझन है. कहने का मतलब है कि सीटों का आवंटन उम्मीद से ज्यादा आसान रहा है. यह भाजपा की उपलब्धि मानी जा रही है कि अब गठबंधन में उसका पलड़ा भारी है. लेकिन हकीकत यह भी है कि महाराष्ट्र में अकेले दम पर चुनाव लड़ने पर भाजपा को जो सफलता मिलती आयी है वो गठबंधन में नहीं मिलती है. बाला साहेब के जीवनकाल तक महाराष्ट्र में शिवसेना को बीजेपी से बड़ी पार्टी माना जाता था, लेकिन बाला साहेब ठाकरे के जाने और मोदी के उदय के बाद समीकरण बदल गए. 2014 में पहली बार अकेले चुनाव लड़ने के बाद बीजेपी राज्य की करीब 240 विधानसभा सीटों पर हावी साबित हुई और देवेंद्र फड़णवीस के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी. फिर 2019 में गठबंधन के चलते बीजेपी को 164 सीटें दी गईं, जिनमें से बीजेपी ने 107 सीटें जीती. इस बार गठबंधन के सहयोगी बदल गए हैं लेकिन गठबंधन अभी भी कायम है और बीजेपी के हिस्से में 164 सीटों से भी कम है, ऐसे में भाजपा का प्रदर्शन पहले की तुलना में कमजोर रहने की आशंका है.

महाराष्ट्र राजनीतिक आधार पर छह अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित होते रहता है : विदर्भ, कोंकण, मुंबई क्षेत्र, पश्चिम, उत्तर और मराठवाड. इनमें से हर क्षेत्र का मिजाज अलग-अलग है, राजनीतिक जरूरतें भी अलग-अलग हैं और उसी हिसाब से यहां अलग-अलग रणनीति का होना जरूरी हो जाता है. सीटों के बंटवारे के अनुसार, भाजपा की सीटों की हिस्सेदारी कम हो गई है, जिससे कम से कम 20 सीटें ऐसी रह गई हैं जहां सहयोगियों के साथ भाजपा के स्थानीय नेतृत्व के समीकरण असंतुलित हो गए हैं. ऐसे में सहयोगी दलों को सीटें आवंटित होने के साथ ही बीजेपी से इस्तीफे भी आने शुरू हो गए हैं. परिणामस्वरूप, यदि सहयोगी दल यह सीटें नहीं जीत सके तो यह भाजपा के लिए बहुत बड़ा नुकसान होगा. वर्तमान में, कोंकण बेल्ट वह जगह है जहां भाजपा और गठबंधन की कठिन चढ़ाई है. कोंकण क्षेत्र में ठाणे भी शामिल है. एकनाथ शिंदे के राजनीतिक गुरु आनंद दिधे दशकों से ठाणे क्षेत्र में प्रभावशाली रहे हैं. आज भी यहां उनके नाम पर शिंदे गुट का दबदबा है. लेकिन इस क्षेत्र के अलावा कोंकण में लोकसभा चुनाव में उद्धव के प्रति सहानुभूति की लहर देखने को मिली थी. बीजेपी ने भी इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाया लेकिन अब अगर शिंदे गुट उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाया तो बीजेपी को बड़ा झटका लगेगा.

विदर्भ क्षेत्र में कुल 62 विधानसभा सीटें हैं जहां बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ते हुए अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन गठबंधन में यह सीट अजित गुट को देनी पड़ी है. इसका सीधा असर बीजेपी के प्रदर्शन पर पड़ेगा. मराठवाड़ा की 35 सीटों पर भी बीजेपी गठबंधन को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है लेकिन यहां बीजेपी तभी राहत की सांस ले सकती है जब मनोज जारांगे पाटिल अपनी घोषणा के मुताबिक उम्मीदवार उतारें. मुंबई क्षेत्र में 36 सीटें ऐसी हैं जहां बीजेपी का निर्विवाद दबदबा है लेकिन यहां बीजेपी अपनी जीत की क्षमता से करीब 8 सीटें पीछे है. उत्तरी महाराष्ट्र में बीजेपी अपने बल पर मजबूत है, लेकिन यहां अजित गुट को मिली सीटों को लेकर बीजेपी निश्चिंत नहीं हो सकती. कुल मिलाकर तस्वीर यह है कि वोटशेयर और अंततः सीटें बढ़ाने में पूरक बनने की बजाय, बीजेपी गठबंधन के कंधों पर सवार होकर चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है.

हरियाणा की तरह यहां भी बीजेपी की ताकत मतदार विरोधी वोटों के बंटवारे पर निर्भर है. हालांकि हरियाणा में सत्ता विरोधी लहर मजबूत थी, फिर भी भाजपा ने सत्ता हासिल कर ली. क्योंकि यहां लगभग हर सीट पर त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय लड़ाई लड़ी गई, जिससे बीजेपी विरोधी वोट बंट गए और बीजेपी अपने जनाधार को एकजुट रखकर सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रही. क्या महाराष्ट्र में ये स्थिति संभव है? राज्य में दो शिवसेना, दो एनसीपी हैं. चुनाव चिह्न बदल गए हैं. जिससे ग्रामीण मतदाताओं में काफी असमंजस की स्थिति रहेगी. एनसीपी के प्रति वफादार मतदाता घड़ी के चुनाव चिन्ह और शरद पवार के चेहरे को पहचानते हैं. शरद पवार के पास सिर्फ चेहरा ही बचा है, चुनाव चिन्ह भतीजे अजित के पास चला गया है. शिवसेना बाला साहेब के चेहरे और धनुष-बाण के चिन्ह से जानी जाती है. दोनों के पोस्टर में बाला साहेब का चेहरा नजर आता है और चुनाव चिन्ह एकनाथ शिंदे के पास है. इतनी असमंजस कम थी कि ऊपर से अब अन्य पार्टियां भी चुनाव मैदान में उतरने के लिए उतावली हो रही हैं. इनमें प्रमुख है छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज संभाजी राजे से प्रेरित गठबंधन. बीजेपी सांसद रह चुके संभाजी राजे अब बीजेपी विरोधी तत्वों को एकजुट कर नया गठबंधन बना रहे हैं. इसमें स्वाभिमानी शेतकारी पार्टी भी शामिल है, जिसका शुगर लॉबी पर आंशिक प्रभाव है, और प्रहार जनशक्ति पार्टी जिसे दलितों का समर्थन प्राप्त है. इस गठबंधन में मराठा आरक्षण के ध्वजवाहक मनोज जरांगे पाटिल और प्रकाश अंबेडकर को भी शामिल करने की कोशिश की जा रही है. मनोज जरांगे युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं और उनका रुख कम से कम 20 सीटों पर निर्णायक हो सकता है.

भाजपा और शिवसेना शिवाजी के आदर्शों पर आधारित राजनीतिक दल होने का दावा करते हैं जबकि शिवाजी के वंशज स्वयं उनके विरोध में हैं. लेकिन आखिरकार यही राजनीति है.

Leave a Reply